51 साल पुराना इंदौर कपास प्रोजेक्ट बंद, कोई नई वेरायटी की खोज नहीं
18 March 2018, 07:22
जितेंद्र यादव, इंदौर। मालवा ही नहीं मध्यप्रदेश के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि इंदौर के शासकीय कृषि महाविद्यालय में संचालित करीब 51 साल पुराना कॉटन प्रोजेक्ट (कपास परियोजना) इसी महीने बंद होने जा रहा है। इस केंद्र से करीब 44 साल में अनुसंधान के नाम पर कपास की एक भी वेरायटी किसानों तक नहीं पहुंच पाई। इसके पीछे राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय ग्वालियर की लापरवाही सामने आ रही है। बजट और मंजूरी के बावजूद विश्वविद्यालय पांच-छह साल में जरूरी वैज्ञानिकों की नियुक्ति नहीं कर पाया।
इंदौर के साथ खंडवा कृषि महाविद्यालय का कॉटन प्रोजेक्ट भी बंद होने वाला था लेकिन हाल ही में वहां प्रजनक वैज्ञानिक की नियुक्ति के कारण यह केंद्र बच गया है। तमिलनाडु के कोयंबटूर स्थित सेंट्रल इंस्टिट्यूट फॉर कॉटन रिसर्च (सीआईसीआर) के अफसरों का कहना है कि उन्होंने इंदौर सेंटर को बचाने की काफी कोशिश की लेकिन विश्वविद्यालय के खराब प्रदर्शन के कारण दिल्ली स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने इसे बंद करने का निर्णय लिया। नए वित्तीय वर्ष से परियोजना के लिए केंद्र सरकार से फंड नहीं मिल पाएगा। अभी तक केंद्र से 75 और राज्य सरकार से 25 फीसदी राशि मिलती है। इंदौर सेंटर पर वर्ष 1974 में डॉ. वीएन श्राफ के कार्यकाल में जेकेएच-1 और जेकेएच-11 कपास की वेरायटी लांच होने के बाद कोई नई वेरायटी विकसित नहीं हुई। बाद में जेकेएच-35 नाम की वेरायटी पर कुछ अनुसंधान हुआ और बाद में ठप हो गया। यह वेरायटी किसानों तक नहीं पहुंच पाई।
ये काम होना था
- ऐसी वेरायटी विकसित करना, जो वहां की जलवायु और मौसमी परिस्थितियों के हिसाब से उपयुक्त हो।
- मप्र के अलावा महाराष्ट्र, गुजरात और उड़ीसा राज्यों से भी को-ऑर्डिनेशन कर ब्रीडिंग ट्रायल देना।
ये लापरवाही भी
- दो वैज्ञानिक, दो तकनीशियन, एक सहायक सहित पांच-छह का स्टाफ तय किया गया था। वैज्ञानिकों में से एक ब्रीडर (प्रजनक) वैज्ञानिक व परियोजना प्रभारी होंगे, दूसरा एंटोमोलॉजिस्ट। इंदौर में 2015 के बाद से कोई ब्रीडर साइंटिस्ट नहीं।
- वैज्ञानिकों और स्टाफ की नियुक्ति के लिए कोई कोशिश नहीं हुई। खर्च के हिसाब-किताब पर भी सवाल।
इनका कहना है
लंबे समय से इंदौर केंद्र की रिपोर्ट निगेटिव आ रही है। आईसीएआर की फाइनेंस कमेटी के सामने भी प्रेजेंटेशन बहुत खराब रहा। एक वेरायटी का अनुसंधान होकर किसानों तक पहुंचने में करीब 8 साल लगते हैं। इसमें भी 5-6 साल पद ही न भरें तो काम कैसे कर पाएंगे - डॉ. एएच प्रकाश, प्रोजेक्ट को-ऑर्डिनेटर, सेंट्रल इंस्टिट्यूट फॉर कॉटन रिसर्च, कोयंबटूर
इंदौर की कपास परियोजना का प्रदर्शन ठीक नहीं है। बीटी कॉटन आने के बाद कपास पर काम ही नहीं हो रहा था। किसानों के लिए इंदौर केंद्र कोई नई वैरायटी नहीं दे पाया। इस कारण इसे बंद किया जा रहा है। पद पर नियुक्ति के लिए शासन से अनुमति नहीं मिल पाई - डॉ. एसके राव, कुलपति, राजमाता विजयाराजे सिंयिा कृषि विश्वविद्यालय, ग्वालियर
पहले इंदौर कपास का मुख्य केंद्र था। मेरे कार्यकाल में वर्ष 1974 में यहां से कपास की जेकेएच-1 और जेकेएच-11 वैरायटी निकाली गई थी जो देशभर में किसानों के बीच खूब चली। उस समय इसका एरिया 30 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया था। मुझे याद आ रहा है कि इसके बाद इस केंद्र से कोई वेरायटी नहीं निकली - डॉ. वीएन श्राफ, सीनियर साइंटिस्ट और इंदौर कॉटन प्रोजेक्ट के पूर्व प्रभारी
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