निषादों की गोलबंदी के सामने बेबस रहे हैं योगी!
18 Mar. 2018 07:22
गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में समाजवादी पार्टी को मिली जीत से ज़्यादा चर्चे भारतीय जनता पार्टी की हार के हैं.
फूलपुर में तो बीजेपी ने 2014 में पहली बार जीत का स्वाद चखा था, लेकिन गोरखपुर में तो इस सीट पर वो पिछले क़रीब तीन दशक से अजेय थी और उससे पहले भी ये सीट ज़्यादातर गोरक्षपीठ के ही महंतों के पास रही है. इसीलिए यहां मिली हार से बीजेपी कुछ ज़्यादा सकते में है.
गोरखपुर में 29 साल बाद बीजेपी और गोरक्षपीठ के एकाधिकार को ढहाने वाले 29 वर्षीय प्रवीण निषाद जिस समुदाय से आते हैं, इस लोकसभा सीट पर उसकी ख़ासी राजनैतिक अहमियत है.
गोरखपुर की हार का कारण
तीन लाख से भी ज़्यादा मतदाता वाले इस समुदाय के सपा-बसपा के पक्ष में 'इकतरफ़ा' मतदान को इस चौंकाने वाले परिणाम का मूल कारण माना जा रहा है.
यही नहीं, पिछले 29 सालों में योगी आदित्यनाथ को तभी कड़ी टक्कर मिली है जब उनके मुक़ाबले इस समुदाय का कोई व्यक्ति खड़ा होता था.
साल 1998 और 1999 में योगी आदित्यनाथ का मुक़ाबला समाजवादी पार्टी के जमुना प्रसाद निषाद से था. 1998 में योगी की जीत 26 हज़ार मतों से हुई जबकि 1999 में जीत का अंतर सिर्फ़ 7,399 ही रह गया.
लेकिन 2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में निषाद समुदाय के एक से ज़्यादा उम्मीदवारों के चलते ये वोट बँट गए और योगी की जीत का अंतर बढ़ता गया.
बताया जाता है कि साल 2014 में भी बड़े अंतर से योगी की जीत इसीलिए संभव हो पाई क्योंकि सपा और बसपा दोनों दलों ने इसी समुदाय के उम्मीदवार उतारे थे और उनके वोट बँट गए.
बीजेपी कहां चूकी?
ऐसे में गोरखपुर के राजनीतिक गलियारों में ये ख़ास चर्चा है कि इस सीट पर सपा और बसपा के गठबंधन के बावजूद इतनी अहम भूमिका निभाने वाले इस समुदाय के मतों में भरपूर सेंध लगाने की कोशिश भारतीय जनता पार्टी ज़रूर करेगी.
जानकारों का कहना है कि पिछले कुछ समय से अति पिछड़ा वर्ग के बिखरे मतों को जुटाने में लगी बीजेपी की इन पर अब तक नज़र कैसे नहीं पड़ी?
गोरखपुर में वरिष्ठ पत्रकार सुजीत पांडेय कहते हैं, "गोरखपुर में निषाद समुदाय के तमाम लोगों की आस्था गोरक्षपीठ में है. ऐसे में बीजेपी को शायद कभी ज़रूरत नहीं पड़ी कि उनको ख़ुश करने के लिए कुछ अलग करना पड़े. लेकिन इस उपचुनाव ने जो परिणाम दिया है, उसे देखते हुए अब सपा-बसपा के नाराज़ निषाद नेताओं पर बीजेपी की निग़ाह ज़रूर होगी और आप देखिएगा कि 2019 के चुनाव से पहले कोई बड़ा नाम बीजेपी में शामिल हो जाए या फिर उसे कोई सरकारी पद दे दिया जाए."
निषाद मतदाता बड़े फैक्टर
उपचुनाव में सपा ने जिस प्रवीण निषाद को पार्टी का टिकट दिया था, वो भी कम दिलचस्प नहीं है लेकिन ऐसा उसने सिर्फ़ निषाद मतों की एकजुटता सुनिश्चित करने के मक़सद से दिया था.
प्रवीण निषाद डॉक्टर संजय निषाद के बेटे हैं जो कि निषाद पार्टी के संस्थापक और अध्यक्ष हैं. सपा ने अपनी पार्टी के निषाद नेता की बजाय प्रवीण निषाद को प्राथमिकता दी और निषाद मतों को अपनी ओर करने में कामयाब रही.
गोरखपुर के रहने वाले एक व्यवसायी गौरव दुबे बताते हैं, "योगी जी के मैदान में न होने के बावजूद ये तो तय था कि बीजेपी किसी निषाद को टिकट नहीं देगी. बीएसपी ने समर्थन की घोषणा बाद में की लेकिन उपचुनाव नहीं लड़ेगी, ये तो साफ़ ही था. कांग्रेस प्रत्याशी घोषित कर चुकी थी. ऐसे में निषाद समुदाय को खड़ा करके उनके मतों का ध्रुवीकरण सपा ने पहले ही कर लिया था."
निषाद पार्टी के संस्थापक डॉक्टर संजय निषाद ने गोरखपुर उपचुनाव में अपने बेटे प्रवीण निषाद को सपा के टिकट पर चुनाव लड़ाया और अपनी पार्टी का सपा को समर्थन दिया, लेकिन दो-ढाई साल पहले सपा सरकार के साथ हुए संघर्ष के कारण ही वो पहली बार चर्चा में आए थे.
BBCअपने कार्यालय में समाजवादी पार्टी के गोरखपुर ज़िलाध्यक्ष प्रह्लाद यादव
जून 2015 में गोरखपुर के पास कसरावल गांव में निषादों को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मांग को लेकर उन्होंने समर्थकों के साथ रेलवे ट्रैक को जाम कर दिया था.
पुलिस ने जब उन्हें हटाने की कोशिश की तो हिंसक झड़प हुई. पुलिस ने फ़ायरिंग की जिसमें एक युवक की मौत भी हो गई थी. उस समय राज्य में समाजवादी पार्टी की सरकार थी और संजय निषाद सहित तीन दर्जन लोगों पर मुक़दमा दर्ज़ किया गया.
बावजूद इसके संजय निषाद की भारतीय जनता पार्टी से दूरी और उसके प्रति उनकी राजनीतिक नफ़रत, उन्हें सपा के क़रीब ले आई.
लेकिन जानकारों का कहना है कि संजय निषाद, जमना प्रसाद निषाद के बेटे अमरेंद्र निषाद और राम भुआल निषाद जैसे नेताओं को एक साथ रखना सपा-बसपा के सामने आसान काम नहीं होगा, वो भी उस स्थिति में जबकि इन पार्टियों के अपने पुराने नेताओं को भी 'ख़ुश रखने' की विवशता होगी.
अनुसूचित जाति में निषादों को शामिल करना
यही नहीं, गोरखपुर में उपचुनाव के बाद ही समाजवादी पार्टी के नेताओं और संजय निषाद के समर्थकों में दूरी साफ़ देखने को मिली.
गोरखपुर में समाजवादी पार्टी दफ़्तर में एक सपा नेता ने बताया, "जिताने में सारी मेहनत सपा वालों ने की लेकिन जब मुख्यमंत्री से मिलना हुआ तो प्रवीण निषाद और उनके पिता अपने लोगों को लेकर लखनऊ चले गए. बिना सपा वालों से पूछे उन्होंने कार्यक्रम तय कर लिया कि दिल्ली से लौटने के बाद गोरखनाथ मंदिर जाएंगे. वो लोग जाएंगे लेकिन हम तो गोरखनाथ मंदिर नहीं जाएंगे."
यही नहीं, समाजवादी पार्टी में निषाद समुदाय के कुछेक बड़े नेता भी अचानक संजय निषाद और प्रवीण निषाद को मिले इस महत्व पर बेचैन हैं.
हालांकि सपा नेता और पूर्व मंत्री जमना निषाद के बेटे अमरेंद्र निषाद ऐसी बातों को सिर्फ़ अफ़वाह बताते हैं, "सारे निषाद अब सपा-बसपा के साथ हैं.
संजय निषाद कोई बाहरी व्यक्ति तो हैं नहीं. उन्होंने अनुसूचित जाति में निषादों को शामिल करने का आंदोलन चलाया और पार्टी बनाई, जबकि मेरे पिता स्वर्गीय जमना प्रसाद निषाद भी लंबे समय तक इसकी मांग करते रहे और समाजवादी पार्टी की सरकार ने इस पर कार्रवाई भी शुरू कर दी थी."
समाजवादी पार्टी के नेता और जमना प्रसाद निषाद के बेटे अमरेंद्र निषाद
"ये उपचुनाव था, बात अलग थी"
लेकिन पत्रकार सुजीत पांडेय ऐसा नहीं मानते. उनके मुताबिक, "निषादों का अब तक कोई ऐसा बड़ा नेता इस इलाक़े में नहीं हुआ है जिसके पीछे सारे निषाद चलें. पहली बार ऐसा हुआ है जबकि इस जाति का एक ही उम्मीदवार चुनाव में खड़ा हुआ, अन्यथा अब तक कई उम्मीदवार खड़े होते थे. दूसरे, जो नेता हैं भी उनमें से कोई भी न तो सर्वमान्य है और न ही ऐसा है जो कि इतनी निष्ठा से इस गठबंधन के साथ खड़ा हो कि अब डिगेगा ही नहीं."
सुजीत पांडेय ये भी कहते हैं कि न सिर्फ़ सपा और बसपा का एकजुट होना अभी उनके कार्यकर्ताओं को बेमेल लग रहा है बल्कि निषाद समुदाय के भी तमाम लोग इस गठबंधन में बहुत सहज महसूस नहीं कर रहे हैं.
उनके मुताबिक, "ये उपचुनाव था, बात अलग थी. मुख्य चुनावों में, चाहे वो लोकसभा हो या विधानसभा, इतनी आसानी से सब मानने वाले और एक-दूसरे के साथ चलने वाले नहीं हैं. दूसरी ओर, भारतीय जनता पार्टी इतने महत्वपूर्ण समुदाय पर डोरे न डाले, ऐसा लगता नहीं है."
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